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कविता

घरौंदा

आरती


बुझने लगी आग
धीरे धीरे ठंडी पड़ती गई उँगलियाँ
पैर की
हाथ की
मैं उसे मुट्ठी में भरने की कोशिश में लगी
सेंक रही थी अपनी ठिठुरती उँगलियाँ
बुझती लौ भभकती है जैसे
वैसे ही भभक रहा था माथा
मैं फूँक मारती रही
खुद को बहलाती रही
यह घरौंदा था
आग का
अब वही नहीं रही

 


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